Saturday, December 20, 2008

मनुष्य के लिए यह गौरव की बात है कि परमेश्वर का युवराज है। इस पदवी को सार्थक बनाने के लिए उसे अपना व्यक्तित्व और कर्तृत्व ऐसा होना चाहिए जो उस गरिमा के अनुरूप हो। इसके लिए अपनी निजी पवित्रता और प्रखरता उच्च स्तर की विनिर्मित करनी चहिये। निजी अभिलाषाओं को इतना कम करना चाहिए की उसे अपरिग्रही ब्रह्मण कहा जा सके। ब्रह्मण को भगवान भी अपेक्षाकृत अधिक प्यार करते हैं और चरों वर्णों में उसकी श्रेष्ठता मानी गई है। इसका एक ही कारण है की उसका निजी निर्वाह अत्यन्त साधारण होता है और अभिमान इतना गलित होता है कि भीख मांगने में भी अवमानना अनुभव न करें, यह नम्रता कि चरम सीमा है, जिस तरह फलों से लदे हुए वृक्ष कि हर डाली नीचे झुक जाती है।

आत्मगौरव की अनुभूति और लोक-प्रतिष्ठता कि प्राप्ति का एक ही मार्ग है- पुण्य-परोपकार में रसानुभूति और लोकसेवा में निरंतर प्रवृत्ति। जो इस मार्ग को अपनाते हैं, वे हर घड़ी अपनी और दूसरो कि दृष्टि में गौरव-गरिमा से भरे-पूरे मने जाते हैं। इसके बिना अन्य रास्ते खोजने वाले काँटों में उलझते और भटकाव में फंसते हैं।

(द्वारा: अखंड ज्योति)

Friday, December 12, 2008

परमात्मा की प्रतीति प्रेम में होती है। यही उसकी सत्ता का सत्य है। इसी में उसकी शक्ति समाहित है। परमात्मा की अभिव्यक्ति का द्वार प्रेम के सिवाय और कुछ भी नही है। जहाँ जितने अंशों में प्रेम है, समझो, वहां उतने होत अंशों में परमात्मा है। आखिरकार यही तो परमात्मा की उअप्स्थिति का प्रकाश है। जब भी हमारा मन क्रोध से भरता है, घृणा से भरता है, तभी हम स्वयं को अशक्त अनुभव करते हैं, घृणा में द्वेष में दुःख और संताप पैदा होते हैं। संताप की मनोदशा केवल सर्व की सत्ता से पृथक होने से होती है; जबकि प्रेम हमारे सम्पूर्ण अस्तित्व को आनंद से भर देता है। एक ऐसी भावदशा जन्मती है, जहाँ शान्ति का संगीत और करुना की सुगंधी हिलोरें लेती है।


इस समंध में बड़ी मीठी कथा है। बंगाल के संत विजयकृष्ण गोस्वामी अपने शिष्य कुलदानंद के साथ वृन्दावन में विचरण कर रहे थे। तभी राह में एक व्यक्ति ने आकर कुलदानंद को रोक लिया और उनका अपमान करने लगा। पहले तो कुल्दानंद ने बड़ी शान्ति से उसके दुर्वचन सुने। उनकी आँखों में प्रेम और प्रार्थना बनी रही, लेकिन यह स्थिति देर तक न रह सकी। अंततः कुलदानंद का धैर्य चुक गया और आँखों में घृणा और प्रतिशोध को ज्वार उमड़ने लगा, उनकी वाणी से दहकते अंगारे बरसने लगे।

संत विजयकृष्ण गोस्वामी अब तक यह सब शान्ति से बैठे देख रहे थे। अचानक वे उठे और एक ओर चल दिए। कुलदानंद को उनके इस तरह से चले जाने पर अचरज हुआ। बाद में उन्होंने अपने गुरु से इसका उलाहना दिया। अपने शिष्य के इस उलाहने पर संत विजयकृष्ण गोस्वामी ने गंभीर होकर कहा- "उस व्यक्ति से बुरे व्यव्हार के प्रत्युत्तर में जब तक तुम शान्ति एवं प्रेम से भरे थे, तब तक प्रभु के पार्षद तुम्हारी रक्षा कर रहे थे, परन्तु ज्यों ही तुमने प्रेम और शान्ति का परित्याग कर क्रोध व घृणा का सहारा लिया, वे पार्षद तुम्हे छोड़ कर चले गए। जब परमात्मा ने ही तुम्हारा साथ छोड़ दिया, तब भला मैं तुम्हारे साथ कैसे रह सकता था!"



(द्वारा: अखंड ज्योति)

Friday, November 14, 2008

धर्म और अध्यात्म के नाम पर केवल कूड़ा-कबाड़ा ही बिकता पाया जाता है। आत्मा की भावनाओ की भूख और प्यास बुझाने वाला तत्त्व दर्शन प्रबुद्ध वर्ग की महती आवश्यकता है। इसकी पूर्ति हो सके तो परमार्थ की दिशा में चलने की आकुल आत्माओ को, सही दिशा मिल सकेगी और पग-पग पर प्रस्तुत भटको से भावनाओं और साधनों की होने वाली दयनीय बर्बादी की रोका जा सकेगा। कलम तो इस दिशा में भी उठानी है। इसके अतिरिक्त स्वास्थ, सदाचार, परिवार, अर्थ विज्ञान, कुटीर उद्योग, कृषि, पशुपालन, आहार-विहार, लोकसेवा, समाज विज्ञान, मनःशास्त्र आदि असंख्य विषयों पर ऐसा साहित्य लिखा जाना है, जो युग की पृष्ठभूमि विनिर्मित करने में सहायक हो सके।

अब तक जो लिखा गया है, छापा गया है, उसका आधार प्रायः भौतिकतावादी पाश्चात्य दर्शन है, जिसमे उत्थान का नही, पतन का ही दिशा निर्देश भरा पड़ा है। अवन्छियता की तुलना में वन्छियता को जब तक खड़ा न किया जाएगा तब तक बौद्धिक क्षेत्र में बह रही उलटी गंगा में उलटी रीति से बहने का ही क्रम जरी रहेगा। बौद्धिक क्रांति की आवश्यकता पूर्ति के लिए हमे न केवल कथा-साहित्य, वरन व्यक्ति को प्रभावित करने वाले, समस्त आधारों को उत्कृष्टता की दिशा देने वाले साहित्य का सृजन करना पड़ेगा। सृजन ही नही, प्रकाशन, मुद्रण और विक्रय के विभिन्न साधन जुटाने पड़ेंगे।






(द्वारा: अखंड ज्योति)

Wednesday, November 12, 2008

भाग्य ने जहाँ छोड़ दिया है, वही पड़ गए और कहने लगे की क्या करें, किस्मत साथ नही देती, सभी हमारे खिलाफ हैं, प्रतिद्वंदिता पर तुले हैं, जमाना बड़ा बुरा आ गया है। यह मानव की अज्ञानता के द्योतक पुरुषार्थहीनता विचार हैं, जिन्होंने अनेक जीवन बिगाड़े हैं। मनुष्य भाग्य के हाथ की कठपुतली है, खिलौना है, वह मिट्टी है, जिसे समय-असमय यों ही मसल डाला जा सकता है। ये भाव अज्ञान मोह एवं कायरता के प्रतीक हैं।

अपने अन्तःकरण में जीवन के बीज बोओं तथा सहस, पुरुषार्थ, सत्संकल्पों के पौधों को जल से सींचकर फलित-पुष्पित करो। साथ ही अकर्मण्यता की घास-फूस को छांट-छांटकर उखाड़ फेंको। उमंग, उल्लास की वायु की हिलोरें उड़ाओ।

आप अपने जीवन के भाग्य, परिस्थितियों, अवसरों के स्वयं निर्माता हैं। स्वयं जीवन को उन्नत या अवनत कर सकते हैं। जब आप सुख-संतोष के लिए प्रयत्न शील होते हैं, वैसी ही मानसिक धारा में निवास करते हैं, तो संतोष और सुख आपके मुखमंडल पर छलक उठता है। जब आप दुखी, क्लांत रहते हैं, तो जीवनवृत्त मुरझा जाता है और शक्ति का ह्रास हो जाता है।

शक्ति की, प्रेम की, बल और पौरुष की बात सोचिए, संसार के श्रेष्ठ वीर पुरुषों की तरह स्वयं परिस्थितियों का निर्माण कीजिये। अपनी दरिद्रता, न्यूनता, कमजोरी को दूर करने की सामर्थ्य आप में है बस केवल आतंरिक शक्ति प्रदीप्त कीजिये।



(द्वारा: अखंड ज्योति)

Tuesday, October 28, 2008

दीपावली पर्व है - सुख - समृद्धि का, सुयश सफलता का, उन्नति का, अंतस की शुद्धता, पवित्रता का और घर - आँगन की स्वच्छता का ताकि दुःख - दारिद्र्य की सारीबेडियाँ कट जायें और जीवन में परम वैभव का लक्ष्य प्राप्त करें। ज्योति पर्व दीपावली हम सबके लिए शुभ रहे, मंगलकारी रहे और कल्याणकारी रहे। कार्य - व्यवसाय में निर्विघ्न उन्नति - प्रगति का योग रहे और "सर्वजन हिताय" , "सर्वजन सुखाय" हम सब का ध्येय रहे। हम सब के आराध्य देव श्री गणेश, आद्यशक्ति माँ लक्ष्मी हमारा मार्ग प्रशस्त करे। सदैव उन्नति और प्रगति की ओर अग्रसर रहने की प्ररणा दे। बुराइयों को त्यागकर अच्छाइयों को ग्रहण करने की शक्ति दें, उनका स्नेह आशीष हम सबके साथ रहे.




(द्वारा: अखंड ज्योति)

Friday, October 24, 2008

उपासना प्रतिदिन करनी चाहिए। जिसने सूरज - चाँद बनाये, फूल, फल और पौधे उगाये, कई वर्ण, कई जाती के प्राणी बनाये, उसके समीप बैठेंगे नही तो विश्व की यथार्थता का पता कैसे चलेगा ? शुद्ध हृदय से कीर्तन, भजन, प्रवचन में भाग लेना प्रभु की स्तुति है। उससे अपने देह, मन और बुद्धि के वे सूक्ष्म संस्थान जाग्रत होते हैं जो मनुष्य को सफल सदगुनी बनाते हैं। उपासना का जीवन विकास से अद्वितीयी सम्बन्ध है।

केवल प्रार्थना ही प्रभु का स्तवन नही है। हम कर्म से भी भगवान की उपासना कर सकते हैं। भगवान कोई मनुष्य नही है, वह तो सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान क्रियाशील सत्ता है। इसलिए उपासना का आभाव रहने पर भी उसके निमित्त कर्म करने वाला मनुष्य बहुत शीघ्र आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है। लकड़ी काटना, सड़क के पत्थर तोड़ना, मकान की सफाई, सजावट और खलिहान में अन्न निकलना आदि भी भगवान की ही स्तुति है। हम यह सारे कार्य इस आशय से करें कि इससे विश्वात्मा का कल्याण होगा। कर्तव्य भावना से किए गए कार्यों एवं परोपकारों से भगवान जितना प्रसन्न होता है, उतना कीर्तन - भजन से नहीं। स्वार्थ के लिए नहीं, असंतोष के लिए किए गए कर्म से बढ़ कर फलदायक ईश्वर कि भक्ति और कोई दूसरी नही हो सकती।

पूजा करते समय हम यह कहते हैं- हे प्रभु ! तू मुझे ऊपर उठा, मेरा कल्याण कर, मेरी शक्तियों को सर्वव्यापी बना दे और कर्म करते समय हमारी भावना यह रहती है - हे प्रभु ! तुम मुझे इतनी शक्ति दो, इतना ज्ञान दो, वैभव और वर्चस्व दो कि वह कम विकसित प्राणियों कि सेवा में काम आए।


(द्वारा: अखंड ज्योति)

Thursday, October 23, 2008


प्रार्थना वही सच्ची है जो अपनी आत्मा की गौरव- गरिमा के अनुरूप कही जायेगी, जिसमे यह कामना जुड़ी रहे कि परमात्मा हमें इस लायक बनाये, जिसमे हम उसके सच्चे भक्त, अनुयायी एवं पुत्र कहलाने का गौरव प्राप्त कर सकें। प्रार्थना में ईश्वर से वह शक्ति प्रदान करने कि विनती कि जाती है, जिसके आधार पर भय और प्रलोभन से मुक्त होकर विवेकसम्मत कर्तव्य पथ पर साहसपूर्वक चला जा सके और इस मार्ग में जो अवरोध आते हैं, उनकी उपेक्षा करते हुए अटल रहा जा सके। कर्मों के फल अनिवार्य हैं, अपने प्रारब्ध भोग जब उपस्थित हों तो उन्हें धैर्यपूर्वक सह सकने और प्रगति के लिए परम पुरुषार्थ करते हुए कभी निराश न होने वाली मनःस्थिति बनते रहा जा सके।



मन को इतना निर्मल बना देनेका अनुनय कि कुकर्मों की और प्रवृत्ति ही न हो और हो भी तो उन्हें करने का दुस्साहस न उठे। इस प्रकार मनुष्य जीवन को, अपनी आत्मा के स्टार को निरंतर ऊँचा उठाने और गतिशील बनाये रहने की मांग ही सच्ची प्रार्थना कही जायेगी.


(द्वारा: अखंड ज्योति)

Wednesday, October 22, 2008


!! ॐ भूर्भुवः स्वः तत्स्वितुर्वरेंयम भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् !!


हम सिर्फ इस मंत्र को कह लेने, बोल लेने, उच्चारण कर लेने से अपने आपको बड़े गुणी और ज्ञानवान समझने लगते हैं. पर ऐसा नही है आइये आज हम और आप मिल कर इस मंत्र का मतलब भी जान लें. जिससे परमात्मा को याद करने का सही अर्थ जान सकें.

- परमात्मा का ही पवित्र अंश मेरी आत्मा है।

भूः - परमात्मा प्राणस्वरूप है। मैं भी अपने को प्राणवान, आत्मशक्ति संपन्न बनाऊंगा.

भुवः - प्रभु दुःख रहित हैं. मैं दुःखदायी मार्ग पर न चलूँ.

स्वः - ईश्वर आनंदस्वरूप हैं। अपने जीवन को आनंदस्वरूप बनाना तथा दूसरो के आनंद में वृद्धि करना मेरा कर्त्तव्य है।

तत् सवितुः - वह भगवान तेजस्वी है। मैं भी निर्भीक, साहसी, वीर, पुरुषार्थी और प्रतिभावान बनूँगा।

वरेण्यं - ब्रह्म श्रेष्ठ हैं। श्रेष्ठता, आदर्शवादिता एवं सिद्ध्न्त्माया जीवन नीति अपनाकर मैं भी श्रेष्ठ ही बनूँगा।

भर्गः - जगदीश्वर निष्पाप है। मैं भी पापों से, कुविचारों से और कुकर्मो से बचकर रहूँगा।

देवस्य - ईश्वर दिव्य है। मैं भी अपने को दिव्य गुणों से सुसज्जित करूँगा, संसार को कुछ देते रहने की दिव्य नीति अपनाऊंगा।
धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् - मैं उपर्युक्त गुणों को धारण करूँगा। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह मुझे सन्मार्ग पर चलने कि बुद्धि प्रदान करें।


(द्वारा: अखंड ज्योति)

Sunday, October 19, 2008

व्यक्ति दूरों के विषय में अधिकाधिक जानने की कोशिश करे या उनकी भावनाओं से परिचित होना चाहे उससे पहले अपने विषय में अधिकाधिक जान लेना चाहिए। अपने मन की भाषा को, अपनी आकाँक्षाओं-भावनाओं को बहुत स्पष्ट रूप से समझा, सुना और परखा जा सकता है। अपने बारे में जानकर अपनी सेवा करना, आत्मसुधार करना अधिक सरल है, बनिस्बत इसके किहम औरों को, सारी दुनिया को बदलने का प्रयास करें। जितना हम अपने अंतःकरण का परिमार्जन और सुधार कर लेंगे, यह संसार हमे उतना ही सुधार हुआ परिलक्षित होने लगेगा।

हम दर्पण में अपना मुख देखते हैं एवं चेहरे कि मलिनता को प्रयत्नपूर्वक साफ कर उसे सुंदर बना डालते हैं। मुख उज्जवल, साफ और अधिक सुंदर निकल आता है। मन कि प्रसन्नता बढ़ जाती है। अंतःकरण भी एक मुख है। उसे चेतना के दर्पण और उसे भलीभांति परखने से उसकी मलिनताएँ भी दिखाई देन लगती हैं, साथ ही सौंदर्य भी। कमियों को दूर करना, मलिनता को मिटाना और आत्मनिरीक्षण द्वारा पार्ट दर गन्दगी को हटा कर आत्मा के अनंत सौंदर्य को प्रकट करना सच्ची उपासना है जब सारी मलिनताएँ निकल जाती हैं तो आत्मा उज्जवल, साफ, सुन्दर स्वरुप परिलक्षित होने लगा है। फिर बहिरंग में सभी कुछ अच्छा सत्, चित्, आनंदमय नज़र आने लगता है।





(द्वारा: अखंड ज्योति)

Saturday, October 18, 2008

यदि आप चाहते हैं की दूसरे लोग आपके ऊपर भरोसा करें तो इसका सबसे सुलभ और सुनिश्चित उपाय यह है कि आप अपने ऊपर भरोसा करें। दुनिया में ऐसे अनेक मनुष्य हैं जिन पर कोई भरोसा नही करता है, उन्हें गैर-जिम्मेरदार और बे-पैंदी का समझा जाता है, तथा जगह-जगह से दुत्कारा जाता है। ऐसे मनुष्य अपने आप के प्रति अविश्वासी होते हैं। उनके चेहरे से, भावभंगिमा से, वाणी से यह स्पष्ट रूप से प्रकट होता रहता है कि वे अपने आप के ऊपर भरोसा नही करते हैं।

बहार के मनुष्य हमे उसी नाम से पुकारते हैं जो हमे उनके सामने प्रकट करते हैं। जब हमारी भावभंगिमा और वाणी से दीनता, तुच्छता, असमर्थता, निराशा, निर्बलता, प्रकट होती है तो तुंरत ही दूसरे लोग भी हमे वैसा ही मान लेते हैं और तदनुसार ही हमारे साथ व्यव्हार करते हैं। जो लोग साहस पूर्वक किसी कार्य को करने के लिए खड़े होते हैं और घोषित करते हैं कि हम इस काम को पुरा करेंगे, देखा गया है कि वे
लोग सफल हो भी जाते हैं. इश्वर मर्दों का मददगार होता है. वह उन लोगों की सहायता भी करता है जो अपनी सहायता आप करने को तत्पर होता है.
आपके सामने आज जो कार्यक्रम है, उसे पूरी दिलचस्पी के साथ पूरा करने का प्रयत्न कीजिये. अपनी योग्यता, बुद्धिमत्ता और कार्यकुशलता को पूरा भरोसा रखिये सारी शक्ति को एकत्रित करके अपने उद्द्येश्य को पूरा करने में इस प्रकार प्रवृत्त होइए, मनो सफलता प्राप्त करने के लिए आपने प्राणप्रण से निश्चय कर लिया है. छ्छोरपन और हीनता वाणी बोलना छोडिये तथा गंभीरता, उत्साह, आशा एवं दृढ़ता के साथ कार्य करना सीखिए.
इस दुनिया में सफलता उसी को मिलती है, जो आत्मविश्वासी होता है.

(द्वारा: अखंड ज्योति)

जिन्दगी है क्या?

पहले तो ये जानना जरुरी है कि जिंदगी मिलती तो है पर उसका उपयोग करना हर कोई जान नही पाता है, हर किसी को अपने जीवन का अर्थ मालूम नही हो पाता है
आइये जाने इसके बारे में !जिंदगी भगवान की दी हुई वो खूबसूरत चीज़ है जिसका मिलना अपने आप में गर्व की बात है, वैसे तो जिंदिगी हर किसी की होती है, पर क्या आप जानते हैं की इसका उपयोग किस तरह करना है
चलिए आज इस बारे में जानने की कोशिश करते हैं

हमे ये जिंदिगी किस लिए मिली है इसका मालूम होना जरूरी है मतलब की हमारा जन्म का क्या उद्देश्य है इसका मालूम होना जरुरी है हमे लक्ष्य का पता होना चाहिए हमे क्या करना है ? हमारा जन्म किस लिए हुआ है ? हमे इस खूबसूरत जहान में अगर जगह मिली है तो इसका क्या कारण है ?

आपका मेरा या किसी न किसी का जन्म हुआ है तो उसके पीछे एक कारण है ! आपको भी नही मालूम मेरे को भी नही मालूम न किसी और को मालूम है , की वो इस दुनिया में क्यों आया है ? इसका पता हमे ख़ुद करना होगा और इसकी जानकारी के लिए कहीं और जाने की जरुरत नही है और न ही किसी से पूछने से इसका पता लगेगा ! इसका जवाब आपके अन्तः मन में ही है बस आपको पहचानने की ज़रूरत है

आप सभी के विचारों की आवश्यकता पड़ेगी
आप से निवेदन है की आपने विचार प्रस्तुत करेंगे
धन्यवाद !!

(द्वारा : अखंड ज्योति)