Friday, December 12, 2008

परमात्मा की प्रतीति प्रेम में होती है। यही उसकी सत्ता का सत्य है। इसी में उसकी शक्ति समाहित है। परमात्मा की अभिव्यक्ति का द्वार प्रेम के सिवाय और कुछ भी नही है। जहाँ जितने अंशों में प्रेम है, समझो, वहां उतने होत अंशों में परमात्मा है। आखिरकार यही तो परमात्मा की उअप्स्थिति का प्रकाश है। जब भी हमारा मन क्रोध से भरता है, घृणा से भरता है, तभी हम स्वयं को अशक्त अनुभव करते हैं, घृणा में द्वेष में दुःख और संताप पैदा होते हैं। संताप की मनोदशा केवल सर्व की सत्ता से पृथक होने से होती है; जबकि प्रेम हमारे सम्पूर्ण अस्तित्व को आनंद से भर देता है। एक ऐसी भावदशा जन्मती है, जहाँ शान्ति का संगीत और करुना की सुगंधी हिलोरें लेती है।


इस समंध में बड़ी मीठी कथा है। बंगाल के संत विजयकृष्ण गोस्वामी अपने शिष्य कुलदानंद के साथ वृन्दावन में विचरण कर रहे थे। तभी राह में एक व्यक्ति ने आकर कुलदानंद को रोक लिया और उनका अपमान करने लगा। पहले तो कुल्दानंद ने बड़ी शान्ति से उसके दुर्वचन सुने। उनकी आँखों में प्रेम और प्रार्थना बनी रही, लेकिन यह स्थिति देर तक न रह सकी। अंततः कुलदानंद का धैर्य चुक गया और आँखों में घृणा और प्रतिशोध को ज्वार उमड़ने लगा, उनकी वाणी से दहकते अंगारे बरसने लगे।

संत विजयकृष्ण गोस्वामी अब तक यह सब शान्ति से बैठे देख रहे थे। अचानक वे उठे और एक ओर चल दिए। कुलदानंद को उनके इस तरह से चले जाने पर अचरज हुआ। बाद में उन्होंने अपने गुरु से इसका उलाहना दिया। अपने शिष्य के इस उलाहने पर संत विजयकृष्ण गोस्वामी ने गंभीर होकर कहा- "उस व्यक्ति से बुरे व्यव्हार के प्रत्युत्तर में जब तक तुम शान्ति एवं प्रेम से भरे थे, तब तक प्रभु के पार्षद तुम्हारी रक्षा कर रहे थे, परन्तु ज्यों ही तुमने प्रेम और शान्ति का परित्याग कर क्रोध व घृणा का सहारा लिया, वे पार्षद तुम्हे छोड़ कर चले गए। जब परमात्मा ने ही तुम्हारा साथ छोड़ दिया, तब भला मैं तुम्हारे साथ कैसे रह सकता था!"



(द्वारा: अखंड ज्योति)

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