मनुष्य के लिए यह गौरव की बात है कि परमेश्वर का युवराज है। इस पदवी को सार्थक बनाने के लिए उसे अपना व्यक्तित्व और कर्तृत्व ऐसा होना चाहिए जो उस गरिमा के अनुरूप हो। इसके लिए अपनी निजी पवित्रता और प्रखरता उच्च स्तर की विनिर्मित करनी चहिये। निजी अभिलाषाओं को इतना कम करना चाहिए की उसे अपरिग्रही ब्रह्मण कहा जा सके। ब्रह्मण को भगवान भी अपेक्षाकृत अधिक प्यार करते हैं और चरों वर्णों में उसकी श्रेष्ठता मानी गई है। इसका एक ही कारण है की उसका निजी निर्वाह अत्यन्त साधारण होता है और अभिमान इतना गलित होता है कि भीख मांगने में भी अवमानना अनुभव न करें, यह नम्रता कि चरम सीमा है, जिस तरह फलों से लदे हुए वृक्ष कि हर डाली नीचे झुक जाती है।
आत्मगौरव की अनुभूति और लोक-प्रतिष्ठता कि प्राप्ति का एक ही मार्ग है- पुण्य-परोपकार में रसानुभूति और लोकसेवा में निरंतर प्रवृत्ति। जो इस मार्ग को अपनाते हैं, वे हर घड़ी अपनी और दूसरो कि दृष्टि में गौरव-गरिमा से भरे-पूरे मने जाते हैं। इसके बिना अन्य रास्ते खोजने वाले काँटों में उलझते और भटकाव में फंसते हैं।
(द्वारा: अखंड ज्योति)
Saturday, December 20, 2008
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