Monday, June 15, 2009

एक पिता ने अपने बेटे को भी मूर्ति कला ही सिखाई। दोनों हाट में जाते और अपनी-अपनी मूर्तियाँ बेचकर आते। पिता की मूर्ति डेढ़-दो रुपए की बिकती, पर बेटे की मूर्तियों का मूल्य केवल ८-१० आने से अधिक नही मिलता। हाट से लौटने के बाद बेटे को पास बैठा कर पिता, उसकी मूर्तियों में रही त्रुटियों की समझाता और अगले दिन उन्हें सुधारने के लिए कहता। यह क्रम वर्षों तक चलता रहा। लड़का समझदार था, उसने पिता की बातें ध्यान से सुनी और अपनी कला में सुधार करने का प्रयत्न करता रहा।
कुछ समय बाद लड़के की मूर्तियाँ भी डेढ़ रुपए की बिकने लगी। पिता अब भी उसी तरह समझाता और मूर्तियों में रहने वाले दोषों की और उसका ध्यान खींचता। बेटे ने और अधिक ध्यान दिया तो कला भी अधिक निखरी। मूर्तियाँ ५ रुपए बिकने लगीं। सुधार के लिए समझाने का क्रम पिता ने अब भी बंद नही किया। एक दिन बेटे ने झुंझला कर कहा- "आप! तो दोष निकलने की बात बंद ही नही करते। मेरी कला तो अब आप से भी अच्छी है, मुझे मूर्ति के ५ रुपए मिलते हैं; जबकि आपको २ ही रुपये।"
पिता ने कहा- "पुत्र! जब मई तुम्हारी उम्र का था, तब मुझे भी अपनी कला का पूणर्ता का अंहकार हो गया और फ़िर सुधार की बात सोचना छोड़ दिया। तब से मेरी प्रगति रुक गई और २ रुपए से अधिक की मूर्तियाँ न बना सका। मैं चाहता हूँ वह भूल तुम न करो। अपनी त्रुटियों को समझने और सुधारने का क्रम सदा जरी रखो, ताकि बहुमूल्य मूर्तियाँ बनाने वाले श्रेष्ठ कलाकारों की श्रेणी में पहुँच सको।"

(द्वारा: अखंड ज्योति)

2 comments:

Very Nice .......
 
its really very nice...........