Thursday, July 9, 2009

अतृप्ति की पीड़ा से परेशान एक आदमी एक फ़कीर के पास गया और उसने उससे पूछा की मेरी यह अतृप्ति कैसे मिट सकती है? मैं तृप्ति का अनुभव कैसे कर सकता हूँ? उस फ़कीर ने कहा-"अरे! इसमे क्या? तुम चलो मेरे साथ। मैं कुएं पर जा रहा हूँ पानी भरने, लगे हाथ तुम्हे अपने सवाल का जवाब भी मिल जाएगा कहने की जरुरत नही पड़ेगी। तुम देख कर ही समझ जाओगे।"

अचरज तो उसे तब भरी हुआ, जब फ़कीर ने एक बाल्टी कुएं में डाली जिसमे पेंदी थी ही नही। फ़कीर ने बाल्टी को खूब डुबोया कुएं के भीतर, खूब आवाज आई, बाल्टी पानी में डूबी भी। उस बाल्टी को डूबने में देर न लगी, क्योंकि उसमे पेंदी तो थी ही नही, जितनी बार उसे खिंचा खाली ही ऊपर आई। एक बार, दो बार, दस बार ये खेल चलता रहा। अंत में उस व्यक्ति से रहा न गया। वह बोल पड़ा-"तुम क्या कर रहे हो यह तो कभी नही भरेगी।"

फ़कीर हंस पड़ा और कहने लगा-"यह बाल्टी मैं तुम्हारे लिए कुएं में डाल रहा हूँ। यह वासना की बाल्टी है, कभी नही भरेगी। आज तक किसी की नहीं भरी है। वासना से तृप्ति पाने का फेर में विषाद ही होता है। तुमने जितनी बार वासनाओ से तृप्त होने की कोशिश की, अतृप्ति ही मिली। कितनी बार लगा की खूब बाल्टी भरी है कुएं के भीतर, लेकिन जब तक हाथ में आई, खाली हो गई। बार-बार ऐसा हुआ, फ़िर भी तुम जागे नही, फ़िर भी तुम चौंके नही। चलो आज तुम चौंके तो सही। तुम्हे होश तो आया की वासनाओं की अतृप्ति कभी मिटती ही नही। तृप्ति तो संवेदनाओं की डगर पर चलने अरु सेवा करने पर मिलती है। जो इस पर चल सकता है, उसे तृप्ति, तुष्टि और शान्ति तीनो अन्यास ही मिल जाती है।"


(द्वारा: अखंड ज्योति)

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