Monday, June 15, 2009

धैर्य यस्य पिता क्षमा च जननी, शंतिश्चिरम गेहिनी,
सत्यम सुनूर्यम दया च भगिनी, भ्राता मन:संयमः।
शय्या भूमितलं दिशोपि वसनं, ज्ञानामृतं भोजनं,
एते यस्य कुतुम्बिनो वाद सखे, कस्माद्भायाम योगिनः।।
१) कुएं को जितना गहरा खोदा जाये, उसमें से उतना ही जल प्राप्त होता जाता है। जितना अधिक अध्ययन किया जाये, मनुष्य उतना ही ज्ञानवान बनता जाता है। विश्व क्या? और इसमें कितनी आनंदमयी शक्ति भरी हुई है, इसे वही जान सकता है, जिसने विद्या पढ़ी है। ऐसी अनुकम्पा संपत्ति को उपार्जन करने में न जाने क्यों लोग आलस्य करते हैं? आयु का कोई प्रश्न नही है, चाहे मनुष्य बुड्ढा हो जाए या मरने के लिए चारपाई पर पड़ा हो तो भी विद्या प्राप्त करने में उसे उत्साहित होना चाहिए, क्योंकि ज्ञान तो जन्म-जन्मान्तरों तक साथ जाने वाली वस्तु है।

२) जो मनुष्य ज्ञान-विज्ञानं की तह में पहुँचने के लिए पढता है, उसके लिए पुस्तकें और पढ़ाई जीने के तख्तों की तरह हैं, जिन पर से होकर वह ऊपर चढ़ता है। जो सीढ़ी वह चढ़ चुका है, उसे पीछे छोड़ देता है, लेकिन अधिकांश मनुष्य, जो अपने दिमाग को तथ्यों से भरने के लिए ही पढ़ते हैं, जीने के तख्तों का उपयोग ऊपर चढ़ने के लिए नही करते हैं, बल्कि उन्हें उखड कर अपने कन्धों पर रख लेते हैं, ताकि उन्हें उठाये-उठाये फ़िर सके और बोझ धोने का आनंद ले सके। ये लोग नीचे ही रह जाते हैं, क्योंकी जो चीज उन्हें ढोने के लिए बनी थी, उसे वे स्वयं ढोने लगते हैं।


३) अंतःकरण मनुष्य का सबसे सच्चा मित्र, निःस्वार्थ पथ-प्रदर्शक और वात्सल्यपूर्ण अभिभावक है। वह न कभी धोखा देता है, न साथ छोड़ता है और न उपेक्षा करता है। पग-पग मनुष्य को सजग एवं सचेत बनता हुआ सही मार्ग पर चलने का प्रयत्न किया करता है। अपने अंतःकरण पर विश्वास करके चलने वाले व्यक्ति न कभी पथभ्रष्ट होते हैं और न किसी आपत्ति में पड़ते हैं। आपत्तियों का आगमन तब भी होता है, जब मनुष्य अपने सच्चे शुभचिंतक अंतःकरण पर अविश्वास करता है।


४) सुख-वैभव, ऐश्वर्य और कीर्ति सब लोग चाहते हैं, परन्तु तन-मन से परिश्रम किए बिना स्थायी रूप से, इनमे से एक भी वस्तु प्राप्त नही हो सकती। आलस्य सुख का शत्रु और उद्द्यम आनंद का सहचर है, जो इस तथ्य को भली भांति समझता है, वह भाग्यवान है, वही बुद्धिमान है, वही चतुर है, बहुतों की जबान पर रहना, बहुतों के हृदय में रहना, संसार में धर्म बढ़ाना और पतितों को पवित्र करना, यही तो चतुरता के लक्षण हैं।


५) पक्षियों को देखिये! पशुओं को देखिये!! वे प्रातः से लेकर सांयकाल तक उतनी खुराक बीनते चलते हैं, जितना वे पचा सकते हैं। पृथ्वी पर बिखरे दाने-चारे की कमी नही, सवेरे से शाम तक घाटा नही पड़ता। पर लेते उतना हैं, जितना मुह मांगता है और पेट संभालता है। यही प्रसन्न रहने की नीति है।

जब उन्हें स्नान का मन होता है, तब इक्षित समय तक स्नान करते हैं। उतना बड़ा ही घोसला बनते हैं, जिसमे उनका शरीर समां सके। कोई इतना बड़ा नही बनता, जिसमे समूचे समुदाये को बैठाया बुलाया, सुलाया जाए।

पेड़ पर देखिये। हर पक्षी ने अपना छोटा घोसला बनाया हुआ है। janwar अपने रहने लायक छाया का प्रबंध करते हैं। वे जानते हैं, जिसकी जितनी जरुरत है, आसानी से मिल जाता है। फ़िर संग्रह की अनावश्यक जिम्मेदारी किसलिए उठाई जाए? आपस में लड़ने का झंझट क्यों मोल लिया जाए।



(द्वारा: अखंड ज्योति)

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