Thursday, October 23, 2008


प्रार्थना वही सच्ची है जो अपनी आत्मा की गौरव- गरिमा के अनुरूप कही जायेगी, जिसमे यह कामना जुड़ी रहे कि परमात्मा हमें इस लायक बनाये, जिसमे हम उसके सच्चे भक्त, अनुयायी एवं पुत्र कहलाने का गौरव प्राप्त कर सकें। प्रार्थना में ईश्वर से वह शक्ति प्रदान करने कि विनती कि जाती है, जिसके आधार पर भय और प्रलोभन से मुक्त होकर विवेकसम्मत कर्तव्य पथ पर साहसपूर्वक चला जा सके और इस मार्ग में जो अवरोध आते हैं, उनकी उपेक्षा करते हुए अटल रहा जा सके। कर्मों के फल अनिवार्य हैं, अपने प्रारब्ध भोग जब उपस्थित हों तो उन्हें धैर्यपूर्वक सह सकने और प्रगति के लिए परम पुरुषार्थ करते हुए कभी निराश न होने वाली मनःस्थिति बनते रहा जा सके।



मन को इतना निर्मल बना देनेका अनुनय कि कुकर्मों की और प्रवृत्ति ही न हो और हो भी तो उन्हें करने का दुस्साहस न उठे। इस प्रकार मनुष्य जीवन को, अपनी आत्मा के स्टार को निरंतर ऊँचा उठाने और गतिशील बनाये रहने की मांग ही सच्ची प्रार्थना कही जायेगी.


(द्वारा: अखंड ज्योति)

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